शरीर क्या है और आत्मा क्या है
आज किसी से पूछा जाए कि आप कौन है ? आपका परिचय क्या है ? तो सब अपने नाम और धंधे के बारे में बताने लगेंगे।
कहेगा मैं रविश कुमार पत्रकार हूँ। मैं अजय कुमार डॉक्टर हूँ।
कोई इंजीनियर होगा तो कहेगा मैं इंजीनियर हूँ कोई डॉक्टर होगा तो कहेगा मैं डॉक्टर हूँ। सब अपने नाम और धंधे के बारे में बताने लगेंगे।
लेकिन फिर उनसे पूछा जाए कि जब आप जन्म लिए थे , तब भी डॉक्टर और इंजीनियर थे क्या ?
जब हम जन्म लेते हैं तब हमारा ना कोई नाम होता है और ना कोई पद होता है। तो हम कौन है ?जो कभी नहीं बदलता , हम जन्म लेते हैं तब भी वही रहते हैं नौजवान में भी वही रहते हैं , बुढ़ापा में भी वही रहते हैं और मृत्यु के बाद भी वही रहते हैं। तो हम कौन हैं ?
बहुतों को समझ में आ गया होगा। हम एक चैतन्य आत्मा हैं। यानि हम एक प्राण हैं। हम एक शुक्ष्म ज्योतिबिंदु आत्मा हैं। अब कोई कहे क्या प्रूफ हम आत्मा कैसे हैं ?
तो इसको ऐसे समझिये - जब हम कहते हैं मेरा घर ,इसका मतलब मैं अलग हूँ और घर अलग है। मैं घर से अलग एक व्यक्तित्व हूँ। मैं घर में रहता हूँ लेकिन मैं घर नहीं हूँ।
वैसे ही जब हम कहते हैं मेरा गाँव , तो गाँव अलग है और मैं अलग हूँ।
फिर कहते हैं मेरा देश , यानि देश अलग है और मैं अलग हूँ। मैं देश में रहता हूँ , मैं देश नहीं हूँ।
* वैसे ही हम कहते हैं मेरा पैर ,मेरा हाथ , मेरा आँख , मेरा मुख मेरा शरीर यानि मैं शरीर से अलग हूँ। मैं शरीर से अलग एक व्यक्तित्व हूँ।
शरीर अलग है और मैं अलग हूँ। मैं शरीर में रहता हूँ , लेकिन मैं शरीर नहीं हूँ। मैं आँखों से देखता हूँ , कानों से सुनता हूँ , मुख से बोलता हूँ। तो यहाँ पर स्पष्ट हो रहा है मैं कहने वाला कोई और है और शरीर अलग है। यानि शरीर अलग है और आत्मा अलग है।
आत्मा क्या है |
शरीर और आत्मा में अंतर
शरीर :-
शरीर 5 तत्वों से बनता है :- जल ,वायु ,अग्नि ,पृथ्वी और आकाश।
शरीर में 70 % जल है , वायु से हम स्वांस लेते हैं , अग्नि से भोजन का पाचन होता है जिसे हम जठर अग्नि कहते हैं ,पृथ्वी - हाड मांस का शरीर है और आकाश यानि खाली स्थान शरीर में है।
आत्मा :-
वहीँ आत्मा 3 चीजों से मिलकर बनता है। मन -बुद्धि और संस्कार।
मन विचार करता है , बुद्धि निर्णय लेती है और हम जैसे कर्म करते हैं वैसे हमारे संस्कार बनते हैं।
मन क्या करता है? विचार करता है यानि सोचता है , जैसे ताजमहल के बारे में किसी ने कहा , तो ताजमहल का दृश्य सामने आ गया। और ताजमहल के बारे में जो भी ज्ञान होगा वो सामने आ जायेगा।
तो मन दृश्य और ज्ञान के आधार पर विचार करता है।
फिर है बुद्धि :- बुद्धि निर्णय लेती है कि क्या सही है और क्या गलत है।
जैसे :- मुझे ताजमहल जाना हो ,तो ट्रैन से हम जाते हैं तो 1000 रुपये खर्च होते हैं वहीँ बस से जाते हैं तो 2000 रुपये खर्च होते हैं।
तो बुद्धि यहाँ निर्णय लेती है कि ट्रैन से जाना फायदेमंद है या बस से। तो यहां ट्रैन से जाने में 1000 रुपये का फायदा हो रहा है , तो ट्रैन से जाना अच्छा है। तो बुद्धि इस तरह से निर्णय लेती है कि क्या सही है उसके लिए और क्या गलत है।
संस्कार :-
हम जैसे कर्म करते हैं वैसे हमारे संस्कार बनते हैं। अब हम ताजमहल गए देखने , वहाँ देखें कि एक बूढी औरत रोड क्रॉस करना चाह रही है , तो मदद कर दिए , इसका मतलब आपके संस्कार अच्छे हैं ,क्या ? तो मदद करने के संस्कार हैं।
वैसे ही कोई देख करके भी बैठा है , इसका मतलब उसके संस्कार अच्छे नहीं है। क्या संस्कार है ? तो आलस्य के।
तो हम जैसे कर्म करते हैं वैसे ही हमारे संस्कार बनते हैं। और जैसे हमारे संस्कार होंगे वैसे ही हमारा हमारा अगला जन्म होगा। कोई बचपन से बोहोत अच्छा गाता है , कोई बचपन से ही विद्वान है , इसका मतलब उसके पिछले जन्म के संस्कार अच्छे हैं।
तो आत्मा मृत्यु के बाद संस्कार लेकर जाती है ,और उसी के अनुसार उनका नया जन्म होता है।
आत्मा का सम्बन्ध शरीर के साथ कैसे है ?
यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सारे शरीर में फैले ज्ञान तंतुओं से है। आत्मा में ही पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिष्क तथा तंतुओं द्वारा व्यक्त होता है। आत्मा ही शांति तथा सुख -दुःख का अनुभव करती है तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते हैं।
इसका अर्थ यही है कि मन और बुद्धि आत्मा से अलग नहीं है। लेकिन आज आत्मा अपने को भूलकर देह (शरीर ) स्त्री , पुरुष ,बूढ़ा , जवान समझने लगा है। और अपने को शरीर समझना ही सभी दुखों का कारन है।
शरीर में आत्मा का निवास कहाँ है ?
आत्मा एक चेतन (प्राण ) एवं अविनाशी ज्योतिबिंदु है। जो कि शरीर में भृकुटि में निवास करती है। आत्मा का वास भृकुटि में होने के कारन ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता है। जब वह कहता है कि मेरे तो भाग्य ही खोटे हैं ,तब भी वह यहीं हाथ लगाता है।
आत्मा का वास यहां होने के कारन ही भक्त लोगों में यहां ही बिंदी और तिलक लगाने की प्रथा है।
उदहारण :- मोटर और ड्राइवर
शरीर को गाडी समझिये और आत्मा को ड्राइवर। जिस तरह ड्राइवर गाडी को चलाता है वैसे ही आत्मा शरीर को चलाती है। ड्राइवर के बिना गाडी का कोई महत्व नहीं , वैसे ही आत्मा के बिना शरीर का कोई महत्व नहीं। दोनों एक दूसरे के पूरक है।
इसीलिए परमपिता परमात्मा कहते हैं "आत्मा की पहचान " होने पर ही हम इस शरीर को अच्छे से चला सकते हैं और अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। आत्मा की पहचान होने पर ही लोग स्वयं सुख - शांति में रहते हैं और दूसरों को भी सुख -शांति ही देते हैं।
ॐ शांति।
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